भगवती प्रसाद द्विवेदी जी का ये आलेख झूला लागल कदम की डारी तीज का त्यौहार मनाने वालो के द्वारा बहुत पसंद किया जाता है। सावन का सुहाना माह, मैदानों में बिछी गुदगुदाने वाली हरी मखमली घास, खेतों और बगीचों में भी बसी हरीतिमा ही हरीतिमा, आसमान में उमड़ते-घुमड़ते कजरारे बादलों की अनुपम छटा, मयूरों का नर्तन, बालू में नहाती हुई चिड़ियों का कलरव, सावन के झूले में झूलती हुई ललनाएँ और पेंग बढ़ाते हुए ग्रामीण सुकुमार। तभी रिमझिम बारिश की झड़ी लग जाती है और अधरों पर रसीली कजरी के मधुर स्वर फूट पड़ते हैं -
झूला लागल कदम्ब की डारी
झूलें कृष्ण मुरारी ना
राधा झूलें कान्ह झुलावें
कान्हा झूलें राधा झुलावें
पारा-पारी ना
गाँव की सोंधी सोंधी माटी और लोक जीवन से जिनका ज़रा भी संबंध है, वे कजरी के इन रसमय आंचलिक गीतों को सुनते ही भाव विह्वल होकर झूम उठते हैं। कजरी में संयोग श्रृगार की प्रधानता पाई जाती है। विरहणी की विरह वेदना भी इन गीतों में मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त की गई है। कुछ लोग कजरी की उत्पत्ति का स्रोत कजरारे बादलों को मानते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कजरी के मूल में तीन कारण गिनाए हैं।
मध्य भारत में सबसे लोकप्रिय राजा दादूराय की मृत्यु तथा रानी नागमती के सती हो जाने पर राज्य की शोक संतप्त जनता ने अपनी वेदना की व्यंजना के लिए 'कजरी' नामक नए राग को जन्म दिया, जिसे आगे चलकर काफी लोकप्रियता हासिल हुई।
दादूराय के राज्य में 'कजली' नामक वन की खूबसूरती के कारण इन गीतों को कजली और आगे चल कर 'कजरी' नाम दिया गया।
सावन-भादों के शुक्ल पक्ष की तीज के दिन, जिसे कजली तीज कहा जाता है, गाये जाने वाले गीत को कजली अथवा कजरी कहा गया है। कजली तीज के दिन जी भर कजरी गाने-गवाने की परंपरा अब भी जीवित है।
कजरी और झूला - दोनों एक-दूसरे के पूरक-से लगते हैं। सावन में स्त्री-पुरुष को कौन कहे, मंदिर में भगवान को भी झूले में बिठाकार झुलाया जाता है। भक्तों की भीड़ इस 'झूलन' को देखने के लिए उमड़ पड़ती है और वे झूले में झूलते भगवान के दर्शन कर उन्हें झूम-झूमकर मनभावनी कजरी सुनाते हैं।यों तो कजरी लगभग पूरे देश में विभिन्न रूपों में गायी जाती है, पर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और वाराणसी की कजरी को काफी लोकप्रियता हासिल है। कहा भी गया है कि रामनगर की रामलीला और मिर्जापुर की कजरी सर्वश्रेष्ठ है।
लीला रामनगर की भारी
कजरी मिर्ज़ापुर सरदार
मिथिला में सावनी माह में हिंडोले पर बैठकर नर-नारी मल्हार के गीत गाते हैं। राजस्थान में तीज के अवसर पर गाये जाने वाले हिंडोले के गीत भी कजरी की ही कोटि में आते हैं।
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